40 सूरए अल मोमिन
सूरए अल मोमिन मक्का में नाजि़ल हुआ मगर ‘‘अल लज़ीना यूजादेलूना’’ आयत के सिवा और इसकी (85) पिच्चासी आयतें हैं
ख़ुदा के नाम से (शुरू करता हूँ) जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम वाला है
हा मीम (1)
(इस) किताब (क़ुरआन) का नाजि़ल करना (ख़ास बारगाहे) ख़़ुदा से है जो (सबसे) ग़ालिब बड़ा वाकि़फ़कार है (2)
गुनाहों का बख़्शने वाला और तौबा का क़ुबूल करने वाला सख़्त अज़ाब देने वाला साहिबे फज़ल व करम है उसके सिवा कोई माबूद नहीं उसी की तरफ (सबको) लौट कर जाना है (3)
ख़ुदा की आयतों में बस वही लोग झगड़े पैदा करते हैं जो काफिर हैं तो (ऐ रसूल) उन लोगों का षहरों (शहरों) घूमना फिरना और माल हासिल करना (4)
तुम्हें इस धोखे में न डाले (कि उन पर आज़ाब न होगा) इन के पहले नूह की क़ौम ने और उन के बाद और उम्मतों ने (अपने पैग़म्बरों को) झुठलाया और हर उम्मत ने अपने पैग़म्बरों के बारे में यही ठान लिया कि उन्हें गिरफ़्तार कर (के क़त्ल कर डालें) और बेहूदा बातों की आड़ पकड़ कर लड़ने लगें - ताकि उसके ज़रिए से हक़ बात को उखाड़ फेंकें तो मैंने, उन्हें गिरफ्तार कर लिया फिर देखा कि उन पर (मेरा अज़ाब कैसा (सख़्त हुआ) (5)
और इसी तरह तुम्हारे परवरदिगार का अज़ाब का हुक्म (उन) काफि़रों पर पूरा हो चुका है कि यह लोग यक़ीनी जहन्नुमी हैं (6)
जो (फ़रिश्ते) अर्श को उठाए हुए हैं और जो उस के गिर्दा गिर्द (तैनात) हैं (सब) अपने परवरदिगार की तारीफ़ के साथ तसबीह करते हैं और उस पर ईमान रखते हैं और मोमिनों के लिए बख़शिश की दुआएं माँगा करते हैं कि परवरदिगार तेरी रहमत और तेरा इल्म हर चीज़ पर अहाता किए हुए हैं, तो जिन लोगों ने (सच्चे) दिल से तौबा कर ली और तेरे रास्ते पर चले उनको बक्श दे और उनको जहन्नुम के अज़ाब से बचा ले (7)
ऐ हमारे पालने वाले इन को सदाबहार बाग़ों में जिनका तूने उन से वायदा किया है दाखि़ल कर और उनके बाप दादाओं और उनकी बीवीयों और उनकी औलाद में से जो लोग नेक हो उनको (भी बख़्श दें) बेशक तू ही ज़बरदस्त (और) हिकमत वाला है (8)
और उनको हर किस्म की बुराइयों से महफूज़ रख और जिसको तूने उस दिन ( कयामत ) के अज़ाबों से बचा लिया उस पर तूने बड़ा रहम किया और यही तो बड़ी कामयाबी है (9)
(हाँ) जिन लोगों ने कुफ़्र एख़्तेयार किया उनसे पुकार कर कह दिया जाएगा कि जितना तुम (आज) अपनी जान से बेज़ार हो उससे बढ़कर ख़ुदा तुमसे बेज़ार था जब तुम ईमान की तरफ बुलाए जाते थे तो कुफ्र करते थे (10)
वह लोग कहेंगे कि ऐ हमारे परवरदिगार तू हमको दो बार मार चुका और दो बार जि़न्दा कर चुका तो अब हम अपने गुनाहों का एक़रार करते हैं तो क्या (यहाँ से) निकलने की भी कोई सबील है (11)
ये इसलिए कि जब तन्हा ख़ुदा पुकारा जाता था तो तुम ईन्कार करते थे और अगर उसके साथ शिर्क किया जाता था तो तुम मान लेते थे तो (आज) ख़ुदा की हुकूमत है जो आलीशान (और) बुज़ुर्ग है (12)
वही तो है जो तुमको (अपनी क़ुदरत की) निशानियाँ दिखाता है और तुम्हारे लिए आसमान से रोज़ी नाजि़ल करता है और नसीहत तो बस वही हासिल करता है जो (उसकी तरफ़) रूझू करता है (13)
पस तुम लोग ख़़ुदा की इबादत को ख़ालिस करके उसी को पुकारो अगरचे कुफ़्फ़ार बुरा मानें (14)
ख़़ुदा तो बड़ा आली मरतबा अर्श का मालिक है, वह अपने बन्दों में से जिस पर चाहता है अपने हुक्म से ‘वही’ नाजि़ल करता है ताकि (लोगों को) मुलाकात (क़यामत) के दिन से डराएं (15)
जिस दिन वह लोग (क़ब्रों) से निकल पड़ेंगे (और) उनको कोई चीज़ खुदा से पोषीदा नहीं रहेगी (और निदा आएगी) आज किसकी बादशाहत है ( फिर ख़़ुदा ख़़ुद कहेगा ) ख़ास ख़ुदा की जो अकेला (और) ग़ालिब है (16)
आज हर शख़्स को उसके किए का बदला दिया जाएगा, आज किसी पर कुछ भी ज़़ुल्म न किया जाएगा बेशक ख़ुदा बहुत जल्द हिसाब लेने वाला है (17)
(ऐ रसूल) तुम उन लोगों को उस दिन से डराओ जो अनक़रीब आने वाला है जब लोगों के कलेजे घुट घुट के (मारे डर के) मुँह को आ जाएंगें (उस वक़्त) न तो सरकशों का कोई सच्चा दोस्त होगा और न कोई ऐसा सिफारिशी जिसकी बात मान ली जाए (18)
ख़़ुदा तो आँखों की दुज़दीदा निगाह को भी जानता है और उन बातों को भी जो (लोगों के) सीनों में पोशीदा है (19)
और ख़़ुदा ठीक ठीक हुक्म देता है, और उसके सिवा जिनकी ये लोग इबादत करते हैं वह तो कुछ भी हुक्म नहीं दे सकते, इसमें शक नहीं कि ख़़ुदा सुनने वाला देखने वाला है (20)
क्या उन लोगों ने रूए ज़मीन पर चल फिर कर नहीं देखा कि जो लोग उनसे पहले थे उनका अन्जाम क्या हुआ (हालाँकि) वह लोग कुवत (शान और उम्र सब) में और ज़मीन पर अपनी निशानियाँ (यादगारें इमारतें) वग़ैरह छोड़ जाने में भी उनसे कहीं बढ़ चढ़ के थे तो ख़़ुदा ने उनके गुनाहों की वजह से उनकी ले दे की, और ख़़ुदा (के ग़ज़ब से) उनका कोई बचाने वाला भी न था (21)
ये इस सबब से कि उनके पैग़म्बरान उनके पास वाज़ेए व रौशन मौजिज़े ले कर आए इस पर भी उन लोगों ने न माना तो ख़ुदा ने उन्हें ले डाला इसमें तो शक ही नहीं कि वह क़वी (और) सख़्त अज़ाब वाला है (22)
और हमने मूसा को अपनी निशानियाँ और रौशन दलीलें देकर (23)
फ़िरऔन और हामान और क़ारून के पास भेजा तो वह लोग कहने लगे कि (ये तो) एक बड़ा झूठा (और) जादूगर है (24)
ग़रज़ जब मूसा उन लोगों के पास हमारी तरफ से सच्चा दीन ले कर आये तो वह बोले कि जो लोग उनके साथ ईमान लाए हैं उनके बेटों को तो मार डालों और उनकी औरतों को (लौन्डिया बनाने के लिए) जि़न्दा रहने दो और काफि़रों की तद्बीरें तो बे ठिकाना होती हैं (25)
और फ़िरऔन कहने लगा मुझे छोड़ दो कि मैं मूसा को तो क़त्ल कर डालूँ, और ( मैं देखूँ ) अपने परवरदिगार को तो अपनी मदद के लिए बुलालें (भाईयों) मुझे अन्देशा है कि (मुबादा) तुम्हारे दीन को उलट पुलट कर डाले या मुल्क में फ़साद पैदा कर दें (26)
और मूसा ने कहा कि मैं तो हर मुताकब्बिर से जो हिसाब के दिन (क़यामत पर ईमान नहीं लाता) अपने और तुम्हारे परवरदिगार की पनाह ले चुका हूँ(27)
और फ़िरऔन के लोगों में एक ईमानदार शख़्स (हिज़कील) ने जो अपने ईमान को छिपाए रहता था (लोगों से कहा) कि क्या तुम लोग ऐसे शख़्स के क़त्ल के दरपै हो जो (सिर्फ़) ये कहता है कि मेरा परवरदिगार अल्लाह है) हालाँकि वह तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से तुम्हारे पास मौजिज़े लेकर आया और अगर (बिल ग़रज़) ये शख़्स झूठा है तो इसके झूठ का बवाल इसी पर पड़ेगा और अगर यह कहीं सच्चा हुआ तो जिस (अज़ाब की) तुम्हें ये धमकी देता है उसमें से कुछ तो तुम लोगों पर ज़रूर वाके़ए होकर रहेगा बेशक ख़ुदा उस शख़्स की हिदायत नहीं करता जो हद से गुज़रने वाला (और) झूठा हो (28)
ऐ मेरी क़ौम आज तो (बेशक) तुम्हारी बादशाहत है (और) मुल्क में तुम्हारा ही बोल बाला है लेकिन (कल) अगर ख़़ुदा का अज़ाब हम पर आ जाए तो हमारी कौन मदद करेगा फ़िरऔन ने कहा मैं तो वही बात समझाता हूँ जो मैं ख़़ुद समझता हूँ और वही राह दिखाता हूँ जिसमें भलाई है (29)
तो जो शख़्स (दर पर्दा) ईमान ला चुका था कहने लगा, भाईयों मुझे तो तुम्हारी निस्बत भी और उम्मतों की तरह रोज़ (बद) का अन्देशा है (30)
(कहीं तुम्हारा भी वही हाल न हो) जैसा कि नूह की क़ौम और आद समूद और उनके बाद वाले लोगों का हाल हुआ और ख़ुदा तो बन्दों पर ज़़ुल्म करना चाहता ही नहीं (31)
और ऐ हमारी क़ौम मुझे तो तुम्हारी निस्बत कयामत के दिन का अन्देशा है (32)
जिस दिन तुम पीठ फेर कर (जहन्नुम) की तरफ चल खड़े होगे तो ख़ुदा के (अज़ाब) से तुम्हारा बचाने वाला न होगा, और जिसको ख़ुदा गुमराही में छोड़ दे तो उसका कोई रूबराह करने वाला नहीं (33)
और (इससे) पहले यूसुफ़ भी तुम्हारे पास मौजिज़े लेकर आए थे तो जो जो लाए थे तुम लोग उसमें बराबर षक ही करते रहे यहाँ तक कि जब उन्होने वफ़ात पायी तो तुम कहने लगे कि अब उनके बाद ख़ुदा हरगिज़ कोई रसूल नहीं भेजेगा जो हद से गुज़रने वाला और शक करने वाला है ख़़ुदा उसे यू हीं गुमराही में छोड़ देता है (34)
जो लोग बगै़र इसके कि उनके पास कोई दलील आई हो ख़़ुदा की आयतों में (ख़्वाहमाख़्वाह) झगड़े किया करते हैं वह ख़़ुदा के नज़दीक और इमानदारों के नज़दीक सख़्त नफरत खेज़ हैं, यूँ ख़ुदा हर मुतकब्बिर सरकश के दिल पर अलामत मुक़र्रर कर देता है (35)
और फ़िरऔन ने कहा ऐ हामान हमारे लिए एक महल बनवा दे ताकि (उस पर चढ़ कर) रसतों पर पहुँच जाऊ (36)
(यानि) आसमानों के रसतों पर फिर मूसा के ख़़ुदा को झांक कर (देख) लूँ और मैं तो उसे यक़ीनी झूठा समझता हूँ, और इसी तरह फिरआऊन की बदकिरदारयाँ उसको भली करके दिखा दी गयीं थीं और वह राहे रास्ता से रोक दिया गया था, और फिरआऊन की तद्बीर तो बस बिल्कुल ग़ारत गुल ही थीं (37)
और जो शख़्स (दर पर्दा) ईमानदार था कहने लगा भाईयों मेरा कहना मानों मैं तुम्हें हिदायत के रास्ते दिख दूंगा (38)
भाईयों ये दुनियावी जि़न्दगी तो बस (चन्द रोज़ा) फ़ायदा है और आखे़रत ही हमेशा रहने का घर है (39)
जो बुरा काम करेगा तो उसे बदला भी वैसा ही मिलेगा, और जो नेक काम करेगा मर्द हो या औरत मगर ईमानदार हो तो ऐसे लोग बहिश्त में दाखि़ल होंगे वहाँ उन्हें बेहिसाब रोज़ी मिलेगी (40)
और ऐ मेरी क़ौम मुझे क्या हुआ है कि मैं तुमको नजाद की तरफ बुलाता हूँ और तुम मुझे दोज़ख़ की तरफ बुलाते हो (41)
तुम मुझे बुलाते हो कि मै ख़ुदा के साथ कुफ़्र करूं और उस चीज़ को उसका शरीक बनाऊ जिसका मुझे इल्म में भी नहीं, और मैं तुम्हें ग़ालिब (और) बड़े बख़्शने वाले ख़़ुदा की तरफ बुलाता हूँ (42)
बेशक तुम जिस चीज़ की तरफ़ मुझे बुलाते हो वह न तो दुनिया ही में पुकारे जाने के क़ाबिल है और न आखि़रत में और आखि़र में हम सबको ख़़ुदा ही की तरफ़ लौट कर जाना है और इसमें तो शक ही नहीं कि हद से बढ़ जाने वाले जहन्नुमी हैं (43)
तो जो मैं तुमसे कहता हूँ अनक़रीब ही उसे याद करोगे और मैं तो अपना काम ख़़ुदा ही को सौंपे देता हूँ कुछ शक नहीं की ख़ुदा बन्दों ( के हाल ) को ख़ूब देख रहा है (44)
तो ख़़ुदा ने उसे उनकी तद्बीरों की बुराई से महफूज़ रखा और फिरऔनियों को बड़े अज़ाब ने ( हर तरफ ) से घेर लिया (45)
और अब तो कब्र में दोज़ख़ की आग है कि वह लोग (हर) सुबह व शाम उसके सामने ला खड़े किए जाते हैं और जिस दिन क़यामत बरपा होगी (हुक्म होगा) फ़िरऔन के लोगों को सख़्त से सख़्त अज़ाब में झोंक दो (46)
और ये लोग जिस वक़्त जहन्नुम में बाहम झगड़ेंगें तो कम हैसियत लोग बड़े आदमियों से कहेंगे कि हम तुम्हारे ताबे थे तो क्या तुम इस वक़्त (दोज़ख़ की) आग का कुछ हिस्सा हमसे हटा सकते हो (47)
तो बड़े लोग कहेंगे (अब तो) हम (तुम) सबके सब आग में पड़े हैं ख़़ुदा (को) तो बन्दों के बारे में (जो कुछ) फैसला (करना था) कर चुका (48)
और जो लोग आग में (जल रहे) होंगे जहन्नुम के दरोग़ाओं से दरख़्वास्त करेंगे कि अपने परवरदिगार से अज्र करो कि एक दिन तो हमारे अज़ाब में तख़फ़ीफ़ कर दें (49)
वह जवाब देंगे कि क्या तुम्हारे पास तुम्हारे पैग़म्बर साफ व रौशन मौजिज़े लेकर नहीं आए थे वह कहेंगे (हाँ) आए तो थे, तब फ़रिश्ते तो कहेंगे फिर तुम ख़़ुद (क्यों) न दुआ करो, हालाँकि काफि़रों की दुआ तो बस बेकार ही है (50)
हम अपने पैग़म्बरों की और इमान वालों की दुनिया की जि़न्दगी में भी ज़रूर मदद करेंगे और जिस दिन गवाह (पैग़म्बर फ़रिश्ते गवाही को) उठ खड़े होंगे (51)
(उस दिन भी) जिस दिन ज़ालिमों को उनकी माज़ेरत कुछ भी फायदे न देगी और उन पर फिटकार (बरसती) होगी और उनके लिए बहुत बुरा घर (जहन्नुम) है (52)
और हम ही ने मूसा को हिदायत (की किताब तौरेत) दी और बनी इसराईल को (उस) किताब का वारिस बनाया (53)
जो अक़्लमन्दों के लिए (सरतापा) हिदायत व नसीहत है (54)
(ऐ रसूल) तुम (उनकी शरारत) पर सब्र करो बेशक ख़़ुदा का वायदा सच्चा है, और अपने (उम्मत की) गुनाहों की माफी माँगो और सुबह व शाम अपने परवरदिगार की हम्द व सना के साथ तसबीह करते रहो (55)
जिन लोगों के पास (ख़़ुदा की तरफ से) कोई दलील तो आयी नहीं और (फिर) वह ख़़ुदा की आयतों में (ख़्वाह मा ख़्वाह) झगड़े निकालते हैं, उनके दिल में बुराई (की बेजां हवस) के सिवा कुछ नहीं हालाँकि वह लोग उस तक कभी पहुँचने वाले नहीं तो तुम बस ख़़ुदा की पनाह माँगते रहो बेशक वह बड़ा सुनने वाला (और) देखने वाला है (56)
सारे आसमान और ज़मीन का पैदा करना लोगों के पैदा करने की ये निस्बत यक़ीनी बड़ा (काम) है मगर अक्सर लोग (इतना भी) नहीं जानते (57)
और अँधा और आँख वाला (दोनों) बराबर नहीं हो सकते और न मोमिनीन जिन्होने अच्छे काम किए और न बदकार (ही) बराबर हो सकते हैं बात ये है कि तुम लोग बहुत कम ग़ौर करते हो, कयामत तो ज़रूर आने वाली है (58)
इसमें किसी तरह का षक नहीं मगर अक्सर लोग (इस पर भी) ईमान नहीं रखते (59)
और तुम्हारा परवरदिगार इरशाद फ़रमाता है कि तुम मुझसे दुआएं माँगों मैं तुम्हारी (दुआ) क़ुबूल करूँगा जो लोग हमारी इबादत से अकड़ते हैं वह अनक़रीब ही ज़लील व ख़्वार हो कर यक़ीनन जहन्नुम वासिल होंगे (60)
ख़़ुदा ही तो है जिसने तुम्हारे वास्ते रात बनाई ताकि तुम उसमें आराम करो और दिन को रौशन (बनाया) तकि काम करो बेशक ख़़ुदा लोगों परा बड़ा फज़ल व करम वाला है, मगर अक्सर लोग उसका शुक्र नहीं अदा करते (61)
यही ख़ुदा तुम्हारा परवरदिगार है जो हर चीज़ का ख़ालिक़ है, और उसके सिवा कोई माबूद नहीं, फिर तुम कहाँ बहके जा रहे हो (62)
जो लोग ख़ुदा की आयतों से इन्कार रखते थे वह इसी तरह भटक रहे थे (63)
अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हारे वास्ते ज़मीन को ठहरने की जगह और आसमान को छत बनाया और उसी ने तुम्हारी सूरतें बनायीं तो अच्छी सूरतें बनायीं और उसी ने तुम्हें साफ सुथरी चीज़ें खाने को दीं यही अल्लाह तो तुम्हारा परवरदिगार है तो ख़़ुदा बहुत ही मुतबर्रिक है जो सारे जहाँन का पालने वाला है (64)
वही (हमेशा) जि़न्दा है और उसके सिवा कोई माबूद नहीं तो निरी खरी उसी की इबादत करके उसी से ये दुआ माँगो, सब तारीफ ख़़ुदा ही को सज़ावार है और जो सारे जहाँन का पालने वाला है (65)
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि जब मेरे पास मेरे परवरदिगार की बारगाह से खुले हुए मौजिज़े आ चुके तो मुझे इस बात की मनाही कर दी गयी है कि ख़़ुदा को छोड़ कर जिनको तुम पूजते हो मैं उनकी परसतिश करूँ और मुझे तो यह हुक्म हो चुका है कि मैं सारे जहाँन के पालने वाले का फरमाबरदार बनु (66)
वही वह ख़ुदा है जिसने तुमको पहले (पहल) मिटटी से पैदा किया फिर नुत्फे से, फिर जमे हुए ख़ून फिर तुमको बच्चा बनाकर (माँ के पेट) से निकलता है (ताकि बढ़ों) फिर (जि़न्दा रखता है) ताकि तुम अपनी जवानी को पहुँचो फिर (और जि़न्दा रखता है ताकि तुम बूढ़े हो जाओ और तुममें से कोई ऐसा भी है जो (इससे) पहले मर जाता है ग़रज़ (तुमको उस वक़्त तक जि़न्दा रखता है) की तुम (मौत के) मुकर्रर वक़्त तक पहुँच जाओ (67)
और ताकि तुम (उसकी क़ुदरत को समझो) वह वही (ख़़ुदा) है जो जिलाता और मारता है, फिर जब वह किसी काम का करना ठान लेता है तो बस उससे कह देता है कि ‘हो जा’ तो वह फ़ौरन हो जाता है (68)
(ऐ रसूल) क्या तुमने उन लोगों (की हालत) पर ग़ौर नहीं किया जो ख़़ुदा की आयतों में झगड़े निकाला करते हैं (69)
ये कहाँ भटके चले जा रहे हैं, जिन लोगों ने किताबे (ख़़ुदा) और उन बातों को जो हमने पैग़म्बरों को देकर भेजा था झुठलाया तो बहुत जल्द उसका नतीजा उन्हें मालूम हो जाएगा (70)
जब (भारी भारी) तौक़ और ज़ंजीरें उनकी गर्दनों में होंगी (और पहले) खौलते हुए पानी में घसीटे जाएँगे (71)
फिर (जहन्नुम की) आग में झोंक दिए जाएँगे (72)
फिर उनसे पूछा जाएगा कि ख़ुदा के सिवा जिनको (उसका) शरीक बनाते थे (73)
(इस वक़्त) कहाँ हैं वह कहेंगे अब तो वह हमसे जाते रहे बल्कि (सच यूँ है कि) हम तो पहले ही से (ख़ुदा के सिवा) किसी चीज़ की परसतिश न करते थे यूँ ख़़ुदा काफ़िरों को बौखला देगा (74)
(कि कुछ समझ में न आएगा) ये उसकी सज़ा है कि तुम दुनिया में नाहक (बात पर) निहाल थे और इसकी सज़ा है कि तुम इतराया करते थे (75)
अब जहन्नुम के दरवाज़े में दाखि़ल हो जाओ (और) हमेशा उसी में (पड़े) रहो, ग़रज़ तकब्बुर करने वालों का भी (क्या) बुरा ठिकाना है (76)
तो (ऐ रसूल) तुम सब्र करो ख़़ुदा का वायदा यक़ीनी सच्चा है तो जिस (अज़ाब) की हम उन्हें धमकी देते हैं अगर हम तुमको उसमें कुछ दिखा दें या तुम ही को (इसके क़ब्ल) दुनिया से उठा लें तो (आखि़र फिर) उनको हमारी तरफ़ लौट कर आना है, (77)
और तुमसे पहले भी हमने बहुत से पैग़म्बर भेजे उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनके हालात हमने तुमसे बयान कर दिए, और कुछ ऐसे हैं जिनके हालात तुमसे नहीं दोहराए और किसी पैग़म्बर की ये मजाल न थी कि ख़़ुदा के ऐख़्तेयार दिए बग़ैर कोई मौजिज़ा दिखा सकें फिर जब ख़़ुदा का हुक्म (अज़ाब) आ पहुँचा तो ठीक ठीक फैसला कर दिया गया और अहले बातिल ही इस घाटे में रहे, (78)
ख़ुदा ही तो वह है जिसने तुम्हारे लिए चारपाए पैदा किए ताकि तुम उनमें से किसी पर सवार होते हो और किसी को खाते हो (79)
और तुम्हारे लिए उनमें (और भी) फायदे हैं और ताकि तुम उन पर (चढ़ कर) अपनी दिली मक़सद तक पहुँचो और उन पर और (नीज़) कश्तियों पर सवार फिरते हो (80)
और वह तुमको अपनी (कुदरत की) निशानियाँ दिखाता है तो तुम ख़ुदा की किन किन निशानियों को न मानोगे (81)
तो क्या ये लोग रूए ज़मीन पर चले फिरे नहीं, तो देखते कि जो लोग इनसे पहले थे उनका क्या अंजाम हुआ, जो उनसे (तादाद में) कहीं ज़्यादा थे और क़ूवत और ज़मीन पर (अपनी) निशानियाँ (यादगारें) छोड़ने में भी कहीं बढ़ चढ़ कर थे तो जो कुछ उन लोगों ने किया कराया था उनके कुछ भी काम न आया (82)
फिर जब उनके पैग़म्बर उनके पास वाज़ेए व रौशन मौजिज़े ले कर आए तो जो इल्म (अपने ख़्याल में) उनके पास था उस पर नाजि़ल हुए और जिस (अज़ाब) की ये लोग हँसी उड़ाते थे उसी ने उनको चारों तरफ से घेर लिया (83)
तो जब इन लोगों ने हमारे अज़ाब को देख लिया तो कहने लगे, हम यकता ख़़ुदा पर ईमान लाए और जिस चीज़ को हम उसका शरीक बनाते थे हम उनको नहीं मानते (84)
तो जब उन लोगों ने हमारा (अज़ाब) आते देख लिया तो अब उनका ईमान लाना कुछ भी फायदेमन्द नहीं हो सकता (ये) ख़़ुदा की आदत (है) जो अपने बन्दों के बारे में (सदा से) चली आती है और काफि़र लोग इस वक़्त घाटे मे रहे (85)

सूरए अल मोमिन ख़त्म