सूरए अल अहज़ाब मदीने में नाजि़ल हुआ और उसकी (73) तेहत्तर आयतें हैं।
खुदा के नाम से शुरू करता हूँ, जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है।
ऐ नबी खुदा ही से डरते रहो और काफिरों और मुनाफिक़ों की बात न मानो इसमें शक नहीं कि खु़दा बड़ा वाकि़फकार हकीम है। (1)
और तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से तुम्हारे पास जो “वही” की जाती है (बस) उसी की पैरवी करो तुम लोग जो कुछ कर रहे हो खु़दा उससे यक़ीनी अच्छा तरह आगाह है। (2)
और खु़दा ही पर भरोसा रखो और खु़दा ही कारसाजी के लिए काफी है (3)
ख़ुदा ने किसी आदमी के सीने में दो दिल नहीं पैदा किये कि (एक ही वक़्त दो इरादे कर सके) और न उसने तुम्हारी बीवियों को जिन से तुम जे़हार करते हो तुम्हारी माएँ बना दी और न उसने तुम्हारे लै पालकों को तुम्हारे बेटे बना दिये। ये तो फ़क़त तुम्हारी मुँह बोली बात (और ज़ुबानी जमा खर्च) है और (चाहे किसी को बुरी लगे या अच्छी) खु़दा तो सच्ची कहता है और सीधी राह दिखाता है। (4)
लै पालकों का उनके (असली) बापों के नाम से पुकारा करो यही खु़दा के नज़दीक बहुत ठीक है हाँ अगर तुम लोग उनके असली बापों को न जानते हो तो तुम्हारे दीनी भाई और दोस्त हैं (उन्हें भाई या दोस्त कहकर पुकारा करो) और हाँ इसमें भूल चूक जाओ तो अलबत्ता उसका तुम पर कोई इल्ज़ाम नहीं है मगर जब तुम दिल से जानबूझ कर करो (तो ज़रूर गुनाह है) और खु़दा तो बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है। (5)
नबी तो मोमिनीन से खु़द उनकी जानों से भी बढ़कर हक़ रखते हैं (क्योंकि वह गोया उम्मत के मेहरबान बाप हैं) और उनकी बीवियाँ (गोया) उनकी माएँ हैं और मोमिनीन व मुहाजिरीन में से (जो लोग बाहम) क़राबतदार हैं। किताबें खु़दा की रूह से (ग़ैरों की निस्बत) एक दूसरे के (तर्के के) ज्यादा हक़दार हैं मगर (जब) तुम अपने दोस्तों के साथ सुलूक करना चाहो (तो दूसरी बात है) ये तो किताबे (खु़दा) में लिखा हुआ (मौजूद) है (6)
और (ऐ रसूल वह वक़्त याद करो) जब हमने और पैग़म्बरों से और ख़ास तुमसे और नूह और इबराहीम और मूसा और मरियम के बेटे ईसा से एहदो पैमाने लिया और उन लोगों से हमने सख़्त एहद लिया था (7)
ताकि (क़यामत के दिन) सच्चों (पैग़म्बरों) से उनकी सच्चाई तबलीग़े रिसालत का हाल दरियाफ्त करें और काफिरों के वास्ते तो उसने दर्दनाक अज़ाब तैयार ही कर रखा है। (8)
(ऐ ईमानदारों खु़दा की) उन नेअमतों को याद करो जो उसने तुम पर नाजि़ल की हैं (जंगे खन्दक में) जब तुम पर (काफिरों का) लशकर (उमड़ के) आ पड़ा तो (हमने तुम्हारी मदद की) उन पर आँधी भेजी और (इसके अलावा फरिश्तों का ऐसा लश्कर भेजा) जिसको तुमने देखा तक नहीं और तुम जो कुछ कर रहे थे खु़दा उसे खू़ब देख रहा था (9)
जिस वक़्त वह लोग तुम पर तुम्हारे ऊपर से आ पड़े और तुम्हारे नीचे की तरफ से भी पिल गए और जिस वक़्त (उनकी कसरत से) तुम्हारी आँखें ख़ैरा हो गयीं थी और (ख़ौफ से) कलेजे मुँह को आ गए थे और ख़ुदा पर तरह-तरह के (बुरे) ख़्याल करने लगे थे। (10)
यहाँ पर मोमिनों का इम्तिहान लिया गया था और ख़ूब अच्छी तरह झिंझोड़े गए थे। (11)
और जिस वक़्त मुनाफेक़ीन और वह लोग जिनके दिलों में (कुफ्र का) मरज़ था कहने लगे थे कि खु़दा ने और उसके रसूल ने जो हमसे वायदे किए थे वह बस बिल्कुल धोखे की टट्टी था। (12)
और अब उनमें का एक गिरोह कहने लगा था कि ऐ मदीने वालों अब (दुश्मन के मुक़ाबलें में) तुम्हारे कहीं ठिकाना नहीं तो (बेहतर है कि अब भी) पलट चलो और उनमें से कुछ लोग रसूल से (घर लौट जाने की) इजाज़त माँगने लगे थे कि हमारे घर (मर्दों से) बिल्कुल ख़ाली (गै़र महफूज़) पड़े हुए हैं - हालाँकि वह ख़ाली (ग़ैर महफूज़) न थे (बल्कि) वह लोग तो (इसी बहाने से) बस भागना चाहते हैं (13)
और अगर ऐसा ही लश्कर उन लोगों पर मदीने के एतराफ से आ पड़े और उन से फसाद (ख़ाना जंगी) करने की दरख़्वास्त की जाए तो ये लोग उसके लिए (फौरन) आ मौजूद हों (14)
और (उस वक़्त) अपने घरों में भी बहुत कम तवक़्कु़फ़ करेंगे (मगर ये तो जिहाद है) हालाँकि उन लोगों ने पहले ही खु़दा से एहद किया था कि हम दुश्मन के मुक़ाबले में (अपनी) पीठ न फेरेगें और खु़दा के एहद की पूछगछ तो (एक न एक दिन) होकर रहेगी (15)
(ऐ रसूल उनसे) कह दो कि अगर तुम मौत का क़त्ल (के ख़ौफ) से भागे भी तो (यह) भागना तुम्हें हरगिज़ कुछ भी मुफ़ीद न होगा और अगर तुम भागकर बच भी गए तो बस यही न की दुनिया में चन्द रोज़ा और चैनकर लो (16)
(ऐ रसूल) तुम उनसे कह दो कि अगर खुदावन्द तुम्हारे साथ बुराई का इरादा कर बैठे तो तुम्हें उसके (अज़ाब) से कौन ऐसा है जो बचाए या भलाई ही करना चाहे (तो कौन रोक सकता है) और ये लोग खु़दा के सिवा न तो किसी को अपना सरपरस्त पाएँगे और न मद्दगार (17)
तुममें से जो लोग (दूसरों को जिहाद से) रोकते हैं खु़दा उनको खू़ब जानता है और (उनको भी खू़ब जानता है) जो अपने भाई बन्दों से कहते हैं कि हमारे पास चले भी आओ और खु़द भी (फक़त पीछा छुड़ाने को लड़ाई के खेत) में बस एक ज़रा सा आकर तुमसे अपनी जान चुराई (18)
और चल दिए और जब (उन पर) कोई ख़ौफ (का मौक़ा) आ पड़ा तो देखते हो कि (आस से) तुम्हारी तरफ देखते हैं (और) उनकी आँखें इस तरह घूमती हैं जैसे किसी शख्स पर मौत की बेहोशी छा जाए फिर वह ख़ौफ (का मौक़ा) जाता रहा और ईमानदारों की फतेह हुयी तो माले (ग़नीमत) पर गिरते पड़ते फौरन तुम पर अपनी तेज़ ज़बानों से ताना कसने लगे ये लोग (शुरू) से ईमान ही नहीं लाए (फक़त ज़बानी जमा ख़र्च थी) तो खु़दा ने भी इनका किया कराया सब अकारत कर दिया और ये तो खु़दा के वास्ते एक (निहायत) आसान बात थी (19)
(मदीने का मुहासेरा करने वाले चल भी दिए मगर) ये लोग अभी यही समझ रहे हैं कि (काफि़रों के) लश्कर अभी नहीं गए और अगर कहीं (कुफ्फार का) लश्कर फिर आ पहुँचे तो ये लोग चाहेंगे कि काश वह जंगलों में गँवारों में जा बसते और (वहीं से बैठे बैठे) तुम्हारे हालात दरयाफ़्त करते रहते और अगर उनको तुम लोगों में रहना पड़ता तो फ़क़त (पीछा छुड़ाने को) ज़रा ज़हूर (कहीं) लड़ते (20)
(मुसलमानों) तुम्हारे वास्ते तो खु़द रसूल अल्लाह का (ख़न्दक़ में बैठना) एक अच्छा नमूना था (मगर हाँ यह) उस शख़्स के वास्ते है जो खु़दा और रोजे़ आखे़रत की उम्मीद रखता हो और खु़दा की याद बाकसरत करता हो (21)
और जब सच्चे ईमानदारों ने (कुफ्फार के) जमघटों को देखा तो (बेतकल्लुफ़) कहने लगे कि ये वही चीज़ तो है जिसका हम से खु़दा ने और उसके रसूल ने वायदा किया था (इसकी परवाह क्या है) और खु़दा ने और उसके रसूल ने बिल्कुल ठीक कहा था और (इसके देखने से) उनका ईमानदार और उनकी इताअत और भी जि़न्दा हो गयी (22)
ईमानदारों में से कुछ लोग ऐसे भी हैं कि खु़दा से उन्होंने (जानिसारी का) जो एहद किया था उसे पूरा कर दिखाया ग़रज़ उनमें से बाज़ वह हैं जो (मर कर) अपना वक़्त पूरा कर गए और उनमें से बाज़ (हुक्मे खु़दा के) मुन्तजि़र बैठे हैं और उन लोगों ने (अपनी बात) ज़रा भी नहीं बदली (23)
ये इम्तेहान इसलिए था ताकि खु़द सच्चे (इमानदारों) को उनकी सच्चाई की जज़ाए ख़ैर दे और अगर चाहे तो मुनाफेक़ीन की सज़ा करे या (अगर वह लागे तौबा करें तो) खु़दा उनकी तौबा कु़बूल फरमाए इसमें शक नहीं कि खु़दा बड़ा बख्शने वाला मेहरबान है (24)
और खु़दा ने (अपनी कु़दरत से) क़ाफिरों को मदीने से फेर दिया (और वह लोग) अपनी झुंझलाहट में (फिर गए) और इन्हें कुछ फायदे भी न हुआ और खु़दा ने (अपनी मेहरबानी से) मोमिनीन को लड़ने की नौबत न आने दी और खु़दा तो (बड़ा) ज़बरदस्त (और) ग़ालिब हैं (25)
और एहले किताब में से जिन लोगों (बनी कु़रैज़ा) ने उन (कुफ्फार) की मदद की थी खु़दा उनको उनके कि़लों से (बेदख़ल करके) नीचे उतार लाया और उनके दिलों में (तुम्हारा) ऐसा रोब बैठा दिया कि तुम उनके कुछ लोगों को क़त्ल करने लगे (26)
और कुछ को क़ैदी (और गु़लाम) बनाने और तुम ही लोगों को उनकी ज़मीन और उनके घर और उनके माल और उस ज़मीन (खै़बर) का खु़दा ने मालिक बना दिया जिसमें तुमने क़दम तक नहीं रखा था और खु़दा तो हर चीज़ पर क़ादिर वतवाना है (27)
ऐ रसूल अपनी बीवियों से कह दो कि अगर तुम (फक़त) दुनियावी जि़न्दगी और उसकी आराइश व ज़ीनत की ख्वाहाॅ हो तो उधर आओ मैं तुम लोगों को कुछ साज़ो सामान दे दूँ और उनवाने शाइस्ता से रूख़सत कर दूँ (28)
और अगर तुम लोग खु़दा और उसके रसूल और आखे़रत के घर की ख्वाहाॅ हो तो (अच्छी तरह ख्याल रखो कि) तुम लोगों में से नेकोकार औरतों के लिए खु़दा ने यक़ीनन् बड़ा (बड़ा) अज्र व (सवाब) मुहय्या कर रखा है (29)
ऐ पैग़म्बर की बीबियों तुममें से जो कोई किसी सरीही ना शाइस्ता हरकत की का मुरतिब हुयी तो (याद रहे कि) उसका अज़ाब भी दुगना बढ़ा दिया जाएगा और खु़दा के वास्ते (निहायत) आसान है (30)
और तुममें से जो (बीवी) खु़दा और उसके रसूल की ताबेदारी अच्छे (अच्छ) काम करेगी उसको हम उसका सवाब भी दोहरा अता करेगें और हमने उसके लिए (जन्नत में) इज़्ज़त की रोज़ी तैयार कर रखी है (31)
ऐ नबी की बीवियों तुम और मामूली औरतों की सी तो हो वही (बस) अगर तुम को परहेज़गारी मंजू़र रहे तो (अजनबी आदमी से) बात करने में नरम नरम (लगी लिपटी) बात न करो ताकि जिसके दिल में (शहवते जि़ना का) मजऱ् है वह (कुछ और) इरादा (न) करे (32)
और (साफ-साफ) उनवाने शाइस्ता से बात किया करो और अपने घरों में निचली बैठी रहो और अगले ज़माने जाहिलियत की तरह अपना बनाव सिंगार न दिखाती फिरो और पाबन्दी से नमाज़ पढ़ा करो और (बराबर) ज़कात दिया करो और खु़दा और उसके रसूल की इताअत करो ऐ (पैग़म्बर के) अहले बैत खु़दा तो बस ये चाहता है कि तुमको (हर तरह की) बुराई से दूर रखे और जो पाक व पाकीज़ा दिखने का हक़ है वैसा पाक व पाकीज़ा रखे (33)
और (ऐ नबी की बीबियों) तुम्हारे घरों में जो खु़दा की आयतें और (अक़ल व हिकमत की बातें) पढ़ी जाती हैं उनको याद रखो कि बेशक ख़ुदा बड़ा बारीक है वाकि़फकार है (34)
(दिल लगा के सुनो) मुसलमान मर्द और मुसलमान औरतें और ईमानदार मर्द और ईमानदार औरतें और फरमाबरदार मर्द और फरमाबरदार औरतें और रास्तबाज़ मर्द और रास्तबाज़ औरतें और सब्र करने वाले मर्द और सब्र करने वाली औरतें और फिरौतनी करने वाले मर्द और फिरौतनी करने वाली औरतें और Â़ैरात करने वाले मर्द और Â़ैरात करने वाली औरतें और रोज़ादार मर्द और रोज़ादार औरतें और अपनी शर्मगाहों की हिफाज़त करने वाले मर्द और हिफाज़त करने वाली औरतें और खु़दा की बकसरत याद करने वाले मर्द और याद करने वाली औरतें बेशक इन सब लोगों के वास्ते खु़दा ने मग़फिरत और (बड़ा) सवाब मुहैय्या कर रखा है (35)
और न किसी ईमानदार मर्द को ये मुनासिब है और न किसी ईमानदार औरत को जब खु़दा और उसके रसूल किसी काम का हुक्म दें तो उनको अपने उस काम (के करने न करने) अख़तेयार हो और (याद रहे कि) जिस शख़्स ने खु़दा और उसके रसूल की नाफरमानी की वह यक़ीनन खुल्लम खुल्ला गुमराही में मुब्तिला हो चुका (36)
और (ऐ रसूल वह वक़्त याद करो) जब तुम उस शख़्स (ज़ैद) से कह रहे थे जिस पर खु़दा ने एहसान (अलग) किया था और तुमने उस पर (अलग) एहसान किया था कि अपनी बीबी (ज़ैनब) को अपनी ज़ौजि़यत में रहने दे और खु़दा से डेर खु़द तुम इस बात को अपने दिल में छिपाते थे जिसको (आखि़रकार) खु़दा ज़ाहिर करने वाला था और तुम लोगों से डरते थे हालाॅकि खु़दा इसका ज़्यादा हक़दार है कि तुम उस से डरो ग़रज़ जब ज़ैद अपनी हाजत पूरी कर चुका (तलाक़ दे दी) तो हमने (हुक्म देकर) उस औरत (ज़ैनब) का निकाह तुमसे कर दिया ताकि आम मोमिनीन को अपने ले पालक लड़कों की बीवियों (से निकाह करने) में जब वह अपना मतलब उन औरतों से पूरा कर चुकें (तलाक़ दे दें) किसी तरह की तंगी न रहे और खु़दा का हुक्म तो किया कराया हुआ (क़तई) होता है (37)
जो हुक्म खु़दा ने पैग़म्बर पर फर्ज़ कर दिया (उसके करने) में उस पर कोई मुज़ाएका नहीं जो लोग (उनसे) पहले गुज़र चुके हैं उनके बारे में भी खु़दा का (यही) दस्तूर (जारी) रहा है (कि निकाह में तंगी न की) और खु़दा का हुक्म तो (ठीक अन्दाज़े से) मुक़र्रर हुआ होता है (38)
वह लोग जो खु़दा के पैग़ामों को (लोगों तक जूँ का तूँ) पहुँचाते थे और उससे डरते थे और खु़दा के सिवा किसी से नहीं डरते थे (फिर तुम क्यों डरते हो) और हिसाब लेने के वास्ते तो खु़द काफ़ी है (39)
(लोगों) मोहम्मद तुम्हारे मर्दों में से (हक़ीक़तन) किसी के बाप नहीं हैं (फिर जै़द की बीवी क्यों हराम होने लगी) बल्कि अल्लाह के रसूल और नबियों की मोहर (यानी ख़त्म करने वाले) हैं और खु़दा तो हर चीज़ से खू़ब वाकि़फ है (40)
ऐ ईमानवालों बाकसरत खु़दा की याद किया करो और (41)
सुबह व शाम उसकी तसबीह करते रहो (42)
वह वही तो है जो खु़द तुमपर दूरूद (दर्दों रहमत) भेजता है और उसके फ़रिश्ते ताकि तुमको (कुफ्ऱ की) तारीकि़यों से निकालकर (ईमान की) रौशनी में ले जाए और खु़दा ईमानवालों पर बड़ा मेहरबान है (43)
जिस दिन उसकी बारगाह में हाजि़र होंगे (उस दिन) उनकी मुरादात (उसकी तरफ से हर कि़स्म की) सलामती होगी और खु़दा ने तो उनके वास्ते बहुत अच्छा बदला (बेहश्त) तैयार रखा है (44)
ऐ नबी हमने तुमको (लोगों का) गवाह और (नेकों को बेहश्त की) खुशख़बरी देने वाला और बदों को अज़ाब से डराने वाला (45)
और खु़दा की तरफ उसी के हुक्म से बुलाने वाला और (इमान व हिदायत का) रौशन चिराग़ बनाकर भेजा (46)
और तुम मोमिनीन को खुशख़बरी दे दो कि उनके लिए खु़दा की तरफ से बहुत बड़ी (मेहरबानी और) बख़्शिश है (47)
और (ऐ रसूल) तुम (कहीं) काफिरों और मुनाफिक़ों की इताअत न करना और उनकी ईज़ारसानी का ख़्याल छोड़ दो और खु़दा पर भरोसा रखो और कारसाज़ी में खु़दा काफ़ी है (48)
ऐ ईमानवालों जब तुम मोमिना औरतों से (बग़ैर मेहर मुक़र्रर किये) निकाह करो उसके बाद उन्हें अपने हाथ लगाने से पहले ही तलाक़ दे दो तो फिर तुमको उनपर कोई हक़ नहीं कि (उनसे) इद्दा पूरा कराओ उनको तो कुछ (कपड़े रूपये वग़ैरह) देकर उनवाने शाइस्ता से रूख़सत कर दो (49)
ऐ नबी हमने तुम्हारे वास्ते तुम्हारी उन बीवियों को हलाल कर दिया है जिनको तुम मेहर दे चुके हो और तुम्हारी उन लौंडियों को (भी) जो खु़दा ने तुमको (बग़ैर लड़े-भिड़े) माले ग़नीमत में अता की है और तुम्हारे चचा की बेटियाँ और तुम्हारी फूफियों की बेटियाँ और तुम्हारे मामू की बेटियाँ और तुम्हारी ख़ालाओं की बेटियाँ जो तुम्हारे साथ हिजरत करके आयी हैं (हलाल कर दी और हर ईमानवाली औरत (भी हलाल कर दी) अगर वह अपने को (बग़ैर मेहर) नबी को दे दें और नबी भी उससे निकाह करना चाहते हों मगर (ऐ रसूल) ये हुक्म सिर्फ तुम्हारे वास्ते ख़ास है और मोमिनीन के लिए नहीं और हमने जो कुछ (मेहर या क़ीमत) आम मोमिनीन पर उनकी बीवियों और उनकी लौंडियों के बारे में मुक़र्रर कर दिया है हम खू़ब जानते हैं और (तुम्हारी रिआयत इसलिए है) ताकि तुमको (बीवियों की तरफ से) कोई दिक़्क़त न हो और खु़दा तो बड़ा बख़शने वाला मेहरबान है (50)
इनमें से जिसको (जब) चाहो अलग कर दो और जिसको (जब तक) चाहो अपने पास रखो और जिन औरतों को तुमने अलग कर दिया था अगर फिर तुम उनके ख्वाहा हो तो भी तुम पर कोई मज़ाएक़ा नहीं है ये (अख़तेयार जो तुमको दिया गया है) ज़रूर इस क़ाबिल है कि तुम्हारी बीवियों की आँखें ठन्डी रहे और आर्जूदा ख़ातिर न हो और वो कुछ तुम उन्हें दे दो सबकी सब उस पर राज़ी रहें और जो कुछ तुम्हारे दिलों में है खु़दा उसको ख़ुब जानता है और खु़दा तो बड़ा वाकि़फकार बुर्दबार है (51)
(ऐ रसूल) अब उन (नौ) के बाद (और) औरतें तुम्हारे वास्ते हलाल नहीं और न ये जायज़ है कि उनके बदले उनमें से किसी को छोड़कर और बीबियाँ कर लो अगर चे तुमको उनका हुस्न कैसा ही भला (क्यों न) मालूम हो मगर तुम्हारी लौंडियाँ (इस के बाद भी जायज़ हैं) और खु़दा तो हर चीज़ का निगरा है (52)
ऐ ईमानदारों तुम लोग पैग़म्बर के घरों में न जाया करो मगर जब तुमको खाने के वास्ते (अन्दर आने की) इजाज़त दी जाए (लेकिन) उसके पकने का इन्तेज़ार (नबी के घर बैठकर) न करो मगर जब तुमको बुलाया जाए तो (ठीक वक़्त पर) जाओ और फिर जब खा चुको तो (फौरन अपनी अपनी जगह) चले जाया करो और बातों में न लग जाया करो क्योंकि इससे पैग़म्बर को अज़ीयत होती है तो वह तुम्हारा लैहाज़ करते हैं और खु़दा तो ठीक (ठीक कहने) से झेंपता नहीं और जब पैग़म्बर की बीवियों से कुछ माँगना हो तो पर्दे के बाहर से माँगा करो यही तुम्हारे दिलों और उनके दिलों के वास्ते बहुत सफाई की बात है और तुम्हारे वास्ते ये जायज़ नहीं कि रसूले खु़दा को (किसी तरह) अज़ीयत दो और न ये जायज़ है कि तुम उसके बाद कभी उनकी बीवियों से निकाह करो बेशक ये ख़ुदा के नज़दीक बड़ा (गुनाह) है (53)
चाहे किसी चीज़ को तुम ज़ाहिर करो या उसे छिपाओ खु़दा तो (बहरहाल) हर चीज़ से यक़ीनी खू़ब आगाह है (54)
औरतों पर न अपने बाप दादाओं (के सामने होने) में कुछ गुनाह है और न अपने बेटों के और न अपने भाईयों के और न अपने भतीजों के और अपने भांजों के और न अपनी (कि़स्म कि) औरतों के और न अपनी लौंडियों के सामने होने में कुछ गुनाह है (ऐ पैग़म्बर की बीबियों) तुम लोग खु़दा से डरती रहो इसमें कोई शक ही नहीं की खु़दा (तुम्हारे आमाल में) हर चीज़ से वाकि़फ़ है (55)
इसमें भी शक नहीं कि खु़दा और उसके फरिश्ते पैग़म्बर (और उनकी आल) पर दुरूद भेजते हैं तो ऐ ईमानदारों तुम भी दुरूद भेजते रहो और बराबर सलाम करते रहो (56)
बेशक जो लोग खुदा को और उसके रसूल को अज़ीयत देते हैं उन पर खु़दा ने दुनिया और आखे़रत (दोनों) में लानत की है और उनके लिए रूसवाई का अज़ाब तैयार कर रखा है (57)
और जो लोग ईमानदार मर्द और ईमानदार औरतों को बगै़र कुछ किए द्दरे (तोहमत देकर) अज़ीयत देते हैं तो वह एक बोहतान और सरीह गुनाह का बोझ (अपनी गर्दन पर) उठाते हैं (58)
ऐ नबी अपनी बीवियों और अपनी लड़कियों और मोमिनीन की औरतों से कह दो कि (बाहर निकलते वक़्त) अपने (चेहरों और गर्दनों) पर अपनी चादरों का घूॅघट लटका लिया करंे ये उनकी (शराफ़त की) पहचान के वास्ते बहुत मुनासिब है तो उन्हें कोई छेड़ेगा नहीं और खु़दा तो बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (59)
ऐ रसूल मुनाफेक़ीन और वह लोग जिनके दिलों में (कुफ्ऱ का) मजऱ् है और जो लोग मदीने में बुरी ख़बरें उड़ाया करते हैं- अगर ये लोग (अपनी शरारतों से) बाज़ न आएॅगे तो हम तुम ही को (एक न एक दिन) उन पर मुसल्लत कर देगें फिर वह तुम्हारे पड़ोस में चन्द रोज़ों के सिवा ठहरने (ही) न पाएँगे (60)
लानत के मारे जहाँ कहीं हत्थे चढ़े पकड़े गए और फिर बुरी तरह मार डाले गए (61)
जो लोग पहले गुज़र गए उनके बारे में (भी) खु़दा की (यही) आदत (जारी) रही और तुम खु़दा की आदत में हरगिज़ तग़य्युर तबद्दुल न पाओगे (62)
(ऐ रसूल) लोग तुमसे क़यामत के बारे में पूछा करते हैं (तुम उनसे) कह दो कि उसका इल्म तो बस खु़दा को है और तुम क्या जानो शायद क़यामत क़रीब ही हो (63)
ख़ुदा ने क़ाफिरों पर यक़ीनन लानत की है और उनके लिए जहन्नुम को तैयार कर रखा है (64)
जिसमें वह हमेशा अबदल आबाद रहेंगे न किसी को अपना सरपरस्त पाएँगे न मद्दगार (65)
जिस दिन उनके मुँह जहन्नुम की तरफ फेर दिए जाएँगें तो उस दिन अफ़सोसनाक लहजे़ में कहेंगे ऐ काश हमने खु़दा की इताअत की होती और रसूल का कहना माना होता (66)
और कहेंगे कि परवरद्गिार हमने अपने सरदारों अपने बड़ों का कहना माना तो उन्हों ही ने हमें गुमराह कर दिया (67)
परवरद्गिारा (हम पर तो अज़ाब सही है मगर) उन लोगों पर दोहरा अज़ाब नाजि़ल कर और उन पर बड़ी से बड़ी लानत कर (68)
ऐ ईमानवालों (ख़बरदार कहीं) तुम लोग भी उनके से न हो जाना जिन्होंने मूसा को तकलीफ दी तो खु़दा ने उनकी तोहमतों से मूसा को बरी कर दिया और मूसा खु़दा के नज़दीक एक रवादार (इज़्ज़त करने वाले) (पैग़म्बर) थे (69)
ऐ ईमानवालों खु़दा से डरते रहो और (जब कहो तो) दुरूस्त बात कहा करो (70)
तो खु़दा तुम्हारी कारगुज़ारियों को दुरूस्त कर देगा और तुम्हारे गुनाह बख़्श देगा और जिस शख़्स ने खु़दा और उसके रसूल की इताअत की वह तो अपनी मुराद को खू़ब अच्छी तरह पहुँच गया (71)
बेशक हमने (रोज़े अज़ल) अपनी अमानत (इताअत इबादत) को सारे आसमान और ज़मीन पहाड़ों के सामने पेश किया तो उन्होंने उसके (बार) उठाने से इन्कार किया और उससे डर गए और आदमी ने उसे (बे ताम्मुल) उठा लिया बेशक इन्सान (अपने हक़ में) बड़ा ज़ालिम (और) नादान है (72)
इसका नतीजा यह हुआ कि खु़दा मुनाफिक़ मर्दों और मुनाफिक़ औरतों और मुशरिक मर्दों और मुशरिक औरतों को (उनके किए की) सज़ा देगा और ईमानदार मर्दों और ईमानदार औरतों की (तक़सीर अमानत की) तौबा क़ुबूल फरमाएगा और खु़दा तो बड़ा बख़शने वाला मेहरबान है (73)
सूरए अल अहज़ाब ख़त्म