बनी इसराईल सूरा मक्का में नाजि़ल हुआ और इसकी एक सौ ग्यारह (111) आयतें हैं
ख़ुदा के नाम से शुरु करता हूँ जो बड़ा मेहरबान रहम वाला है
वह ख़ुदा (हर ऐब से) पाक व पाकीज़ा है जिसने अपने बन्दों को रातों रात मस्जिदुल हराम (ख़ान ऐ काबा) से मस्जिदुल अक़सा (आसमानी मस्जिद) तक की सैर कराई जिसके चैगिर्द हमने हर किस्म की बरकत मुहय्या कर रखी हैं ताकि हम उसको (अपनी कुदरत की) निशानियाँ दिखाए इसमें शक नहीं कि (वह सब कुछ) सुनता (और) देखता है (1)
और हमने मूसा को किताब (तौरैत) अता की और उस को बनी इसराईल की रहनुमा क़रार दिया (और हुक्म दे दिया) कि ऐ उन लोगों की औलाद जिन्हें हम ने नूह के साथ कश्ती में सवार किया था (2)
मेरे सिवा किसी को अपना कारसाज़ न बनाना बेशक नूह बड़ा शुक्र गुज़ार बन्दा था (3)
और हमने बनी इसराईल से इसी किताब (तौरैत) में साफ साफ बयान कर दिया था कि तुम लोग रुए ज़मीन पर दो मरतबा ज़रुर फसाद फैलाओगे और बड़ी सरकशी करोगे (4)
फिर जब उन दो फसादों में पहले का वक़्त आ पहुँचा तो हमने तुम पर कुछ अपने बन्दों (नजतुलनस्र) और उसकी फौज को मुसल्लत {ग़ालिब} कर दिया जो बड़े सख़्त लड़ने वाले थे तो वह लोग तुम्हारे घरों के अन्दर घुसे (और खूब क़त्ल व ग़ारत किया) और ख़ुदा के अज़ाब का वायदा जो पूरा होकर रहा (5)
फिर हमने तुमको दोबारा उन पर ग़लबा देकर तुम्हारे दिन फेरे और माल से और बेटों से तुम्हारी मदद की और तुमको बड़े जत्थे वाला बना दिया (6)
अगर तुम अच्छे काम करोगे तो अपने फायदे के लिए अच्छे काम करोगे और अगर तुम बुरे काम करोगे तो (भी) अपने ही लिए फिर जब दूसरे वक़्त का वायदा आ पहुँचा तो (हमने तैतूस रोगी को तुम पर मुसल्लत किया) ताकि वह लोग (मारते मारते) तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दें (कि पहचाने न जाओ) और जिस तरह पहली दफा मस्जिद बैतुल मुक़द्दस में घुस गये थे उसी तरह फिर घुस पड़ें और जिस चीज़ पर क़ाबू पाए खूब अच्छी तरह बरबाद कर दी (7)
(अब भी अगर तुम चैन से रहो तो) उम्मीद है कि तुम्हारा परवरदिगार तुम पर तरस खाए और अगर (कहीं) वही शरारत करोगे तो हम भी फिर पकड़ेंगे और हमने तो काफिरों के लिए जहन्नुम को क़ैद खाना बना ही रखा है (8)
इसमें शक नहीं कि ये क़ुरान उस राह की हिदायत करता है जो सबसे ज़्यादा सीधी है और जो इमानदार अच्छे अच्छे काम करते हैं उनको ये खुशख़बरी देता है कि उनके लिए बहुत बड़ा अज्र और सवाब (मौजूद) है (9)
और ये भी कि बेशक जो लोग आखि़रत पर इमान नहीं रखते हैं उनके लिए हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है (10)
और आदमी कभी (आजिज़ होकर अपने हक़ में) बुराई (अज़ाब वग़ैरह की दुआ) इस तरह माँगता है जिस तरह अपने लिए भलाई की दुआ करता है और आदमी तो बड़ा जल्दबाज़ है (11)
और हमने रात और दिन को (अपनी क़ुदरत की) दो निशानियाँ क़रार दिया फिर हमने रात की निशानी (चाँद) को धुँधला बनाया और दिन की निशानी (सूरज) को रौशन बनाया (कि सब चीज़े दिखाई दें) ताकि तुम लोग अपने परवरदिगार का फज़ल ढूँढते फिरों और ताकि तुम बरसों की गिनती और हिसाब को जानो (बूझों) और हमने हर चीज़ को खूब अच्छी तरह तफसील से बयान कर दिया है (12)
और हमने हर आदमी के नामए अमल को उसके गले का हार बना दिया है (कि उसकी किस्मत उसके साथ रहे) और क़यामत के दिन हम उसे उसके सामने निकल के रख देगें कि वह उसको एक खुली हुयी किताब अपने रुबरु पाएगा (13)
और हम उससे कहेंगें कि अपना नामए अमल पढ़ले और आज अपने हिसाब के लिए तू आप ही काफी हैं (14)
जो शख़्स रुबरु होता है तो बस अपने फायदे के लिए शह पर आता है और जो शख़्स गुमराह होता है तो उसने भटक कर अपना आप बिगाड़ा और कोई शख़्स किसी दूसरे (के गुनाह) का बोझ अपने सर नहीं लेगा और हम तो जब तक रसूल को भेजकर तमाम हुज्जत न कर लें किसी पर अज़ाब नहीं किया करते (15)
और हमको जब किसी बस्ती का वीरान करना मंज़ूर होता है तो हम वहाँ के खुशहालों को (इताअत का) हुक्म देते हैं तो वह लोग उसमें नाफरमानियाँ करने लगे तब वह बस्ती अज़ाब की मुस्तहक़ होगी उस वक़्त हमने उसे अच्छी तरह तबाह व बरबाद कर दिया (16)
और नूह के बाद से (उस वक़्त तक) हमने कितनी उम्मतों को हलाक कर मारा और (ऐ रसूल) तुम्हारा परवरदिगार अपने बन्दों के गुनाहों को जानने और देखने के लिए काफी है (17)
(और गवाह शाहिद की ज़रुरत नहीं) और जो शख़्स दुनिया का ख़्वाहाँ हो तो हम जिसे चाहते और जो चाहते हैं उसी दुनिया में सिरदस्त {फ़ौरन} उसे अता करते हैं (मगर) फिर हमने उसके लिए तो जहन्नुम ठहरा ही रखा है कि वह उसमें बुरी हालत से रौंदा हुआ दाखि़ल होगा (18)
और जो शख़्स आखि़र का मुतमइनी हो और उसके लिए खूब जैसी चाहिए कोशिश भी की और वह इमानदार भी है तो यही वह लोग हैं जिनकी कोशिश मक़बूल होगी (19)
(ऐ रसूल) उनको (ग़रज़ सबको) हम ही तुम्हारे परवरदिगार की (अपनी) बखि़्शश से मदद देते हैं और तुम्हारे परवरदिगार की बखि़्शिश तो (आम है) किसी पर बन्द नहीं (20)
(ऐ रसूल) ज़रा देखो तो कि हमने बाज़ लोगों को बाज़ पर कैसी फज़ीलत दी है और आखि़रत के दर्जे तो यक़ीनन (यहाँ से) कहीं बढ़के है और वहाँ की फज़ीलत भी तो कैसी बढ़ कर है (21)
और देखो कहीं ख़ुदा के साथ दूसरे को (उसका) शरीक न बनाना वरना तुम बुरे हाल में ज़लील रुसवा बैठै के बैठें रह जाओगे (22)
और तुम्हारे परवरदिगार ने तो हुक्म ही दिया है कि उसके सिवा किसी दूसरे की इबादत न करना और माँ बाप से नेकी करना अगर उनमें से एक या दोनों तेरे सामने बुढ़ापे को पहुँचे (और किसी बात पर खफा हों) तो (ख़बरदार उनके जवाब में उफ तक) न कहना और न उनको झिड़कना और जो कुछ कहना सुनना हो तो बहुत अदब से कहा करो (23)
और उनके सामने नियाज़ {रहमत} से ख़ाकसारी का पहलू झुकाए रखो और उनके हक़ में दुआ करो कि मेरे पालने वाले जिस तरह इन दोनों ने मेरे छोटेपन में मेरी मेरी परवरिश की है (24)
इसी तरह तू भी इन पर रहम फरमा तुम्हारे दिल की बात तुम्हारा परवरदिगार ख़ूब जानता है अगर तुम (वाक़ई) नेक होगे और भूले से उनकी ख़ता की है तो वह तुमको बख़्श देगा क्योंकि वह तो तौबा करने वालों का बड़ा बख़शने वाला है (25)
और क़राबतदारों और मोहताज और परदेसी को उनका हक़ दे दो और ख़बरदार फुज़ूल ख़र्ची मत किया करो (26)
क्योंकि फुज़ूलख़र्ची करने वाले यक़ीनन शैतानों के भाई है और शैतान अपने परवरदिगार का बड़ा नाशुक्री करने वाला है (27)
और तुमको अपने परवरदिगार के फज़ल व करम के इन्तज़ार में जिसकी तुम को उम्मीद हो (मजबूरन) उन (ग़रीबों) से मुँह मोड़ना पड़े तो नरमी से उनको समझा दो (28)
और अपने हाथ को न तो गर्दन से बँधा हुआ (बहुत तंग) कर लो (कि किसी को कुछ दो ही नहीं) और न बिल्कुल खोल दो कि सब कुछ दे डालो और आखि़र तुम को मलामत ज़दा हसरत से बैठना पड़े (29)
इसमें शक नहीं कि तुम्हारा परवरदिगार जिसके लिए चाहता है रोज़ी को फराख़ {बढ़ा} देता है और जिसकी रोज़ी चाहता है तंग रखता है इसमें शक नहीं कि वह अपने बन्दों से बहुत बाख़बर और देखभाल रखने वाला है (30)
और (लोगों) मुफलिसी {ग़रीबी} के ख़ौफ से अपनी औलाद को क़त्ल न करो (क्योंकि) उनको और तुम को (सबको) तो हम ही रोज़ी देते हैं बेशक औलाद का क़त्ल करना बहुत सख़्त गुनाह है (31)
और (देखो) जि़ना के पास भी न फटकना क्योंकि बेशक वह बड़ी बेहयाई का काम है और बहुत बुरा चलन है (32)
और जिस जान का मारना ख़ुदा ने हराम कर दिया है उसके क़त्ल न करना मगर जायज़ तौर पर और जो शख़्स नाहक़ मारा जाए तो हमने उसके वारिस को (क़ातिल पर क़सास का क़ाबू दिया है तो उसे चाहिए कि क़त्ल {ख़ून का बदला लेने) में ज़्यादती न करे बेशक वह मदद दिया जाएगा (33)
(कि क़त्ल ही करे और माफ न करे) और यतीम जब तक जवानी को पहुँचे उसके माल के क़रीब भी न पहुँच जाना मगर हाँ इस तरह पर कि (यतीम के हक़ में) बेहतर हो और एहद को पूरा करो क्योंकि (क़यामत में) एहद की ज़रुर पूछ गछ होगी (34)
और जब नाप तौल कर देना हो तो पैमाने को पूरा भर दिया करो और (जब तौल कर देना हो तो) बिल्कुल ठीक तराजू से तौला करो (मामले में) यही (तरीक़ा) बेहतर है और अन्जाम (भी उसका) अच्छा है (35)
और जिस चीज़ का कि तुम्हें यक़ीन न हो (ख़्वाह मा ख़्वाह) उसके पीछे न पड़ा करो (क्योंकि) कान और आँख और दिल इन सबकी (क़यामत के दिना यक़ीनन बाज़पुर्स होती है (36)
और (देखो) ज़मीन पर अकड़ कर न चला करो क्योंकि तू (अपने इस धमाके की चाल से) न तो ज़मीन को हरगिज़ फाड़ डालेगा और न (तनकर चलने से) हरगिज़ लम्बाई में पहाड़ों के बराबर पहुँच सकेगा (37)
(ऐ रसूल) इन सब बातों में से जो बुरी बात है वह तुम्हारे परवरदिगार के नज़दीक नापसन्द है (38)
ये बात तो हिकमत की उन बातों में से जो तुम्हारे परवरदिगार ने तुम्हारे पास ‘वही’ भेजी और ख़ुदा के साथ कोई दूसरा माबूद न बनाना और न तू मलामत ज़दा राइन्द {धुत्कारा} होकर जहन्नुम में झोंक दिया जाएगा (39)
(ऐ मुशरेकीन मक्का) क्या तुम्हारे परवरदिगार ने तुम्हें चुन चुन कर बेटे दिए हैं और खुद बेटियाँ ली हैं (यानि) फरिश्ते इसमें शक नहीं कि बड़ी (सख़्त) बात कहते हो (40)
और हमने तो इसी क़ुरान में तरह तरह से बयान कर दिया ताकि लोग किसी तरह समझें मगर उससे तो उनकी नफरत ही बढ़ती गई (41)
(ऐ रसूल उनसे) तुम कह दो कि अगर ख़ुदा के साथ जैसा ये लोग कहते हैं और माबूद भी होते तो अब तक उन माबूदों ने अर्श तक (पहुँचाने की कोई न कोई राह निकाल ली होती (42)
जो बेहूदा बातें ये लोग (ख़ुदा की निस्बत) कहा करते हैं वह उनसे बहुत बढ़के पाक व पाकीज़ा और बरतर है (43)
सातों आसमान और ज़मीन और जो लोग इनमें (सब) उसकी तस्बीह करते हैं और (सारे जहाँन) में कोई चीज़ ऐसी नहीं जो उसकी (हम्द व सना) की तस्बीह न करती हो मगर तुम लोग उनकी तस्बीह नहीं समझते इसमें शक नहीं कि वह बड़ा बुर्दबार बख़्शने वाला है (44)
और जब तुम क़ुरान पढ़ते हो तो हम तुम्हारे और उन लोगों के दरम्यिान जो आखि़रत का यक़ीन नहीं रखते एक गहरा पर्दा डाल देते हैं (45)
और (गोया) हम उनके कानों में गरानी पैदा कर देते हैं कि न सुन सकें जब तुम क़ुरान में अपने परवरदिगार का तन्हा जि़क्र करते हो तो कुफ्फार उलटे पावँ नफरत करके (तुम्हारे पास से) भाग खड़े होते हैं (46)
जब ये लोग तुम्हारी तरफ कान लगाते हैं तो जो कुछ ये ग़ौर से सुनते हैं हम तो खूब जानते हैं और जब ये लोग बाहम कान में बात करते हैं तो उस वक़्त ये ज़ालिम (इमानदारों से) कहते हैं कि तुम तो बस एक (दीवाने) आदमी के पीछे पड़े हो जिस पर किसी ने जादू कर दिया है (47)
(ऐ रसूल) ज़रा देखो तो ये कम्बख़्त तुम्हारी निस्बत कैसी कैसी फब्तियाँ कहते हैं तो (इसी वजह से) ऐसे गुमराह हुए कि अब (हक़ की) राह किसी तरह पा ही नहीं सकते (48)
और ये लोग कहते हैं कि जब हम (मरने के बाद सड़ गल कर) हड्डियाँ रह जाएँगें और रेज़ा रेज़ा हो जाएँगें तो क्या नये सिरे से पैदा करके उठा खड़े किए जाएँगें (49)
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि तुम (मरने के बाद) चाहे पत्थर बन जाओ या लोहा या कोई और चीज़ जो तुम्हारे ख़्याल में बड़ी (सख़्त) हो (50)
और उसका जि़न्दा होना दुश्वार हो वह भी ज़रुर जि़न्दा हो गई तो ये लोग अनक़रीब ही तुम से पूछेगें भला हमें दोबारा कौन जि़न्दा करेगा तुम कह दो कि वही (ख़ुदा) जिसने तुमको पहली मरतबा पैदा किया (जब तुम कुछ न थे) इस पर ये लोग तुम्हारे सामने अपने सर मटकाएँगें और कहेगें (अच्छा अगर होगा) तो आखि़र कब तुम कह दो कि बहुत जल्द अनक़रीब ही होगा (51)
जिस दिन ख़ुदा तुम्हें (इसराफील के ज़रिए से) बुंलाएगा तो उसकी हम्दो सना करते हुए उसकी तामील करोगे (और क़ब्रों से निकलोगे) और तुम ख़्याल करोगे कि (मरने के बाद क़ब्रों में) बहुत ही कम ठहरे (52)
और (ऐ रसूल) मेरे (सच्चे) बन्दों (मोमिनों से कह दो कि वह (काफिरों से) बात करें तो अच्छे तरीक़े से (सख़्त कलामी न करें) क्योंकि शैतान तो (ऐसी ही) बातों से फसाद डलवाता है इसमें तो शक ही नहीं कि शैतान आदमी का खुला हुआ दुश्मन है (53)
तुम्हारा परवरदिगार तुम्हारे हाल से खूब वाकि़फ है अगर चाहेगा तुम पर रहम करेगा और अगर चाहेगा तुम पर अज़ाब करेगा और (ऐ रसूल) हमने तुमको कुछ उन लोगों का जि़म्मेदार बनाकर नहीं भेजा है (54)
और जो लोग आसमानों में है और ज़मीन पर हैं (सब को) तुम्हारा परवरदिगार खूब जानता है और हम ने यक़ीनन बाज़ पैग़म्बरों को बाज़ पर फज़ीलत दी और हम ही ने दाऊद को जू़बूर अता की (55)
(ऐ रसूल) तुम उनसे कह दों कि ख़ुदा के सिवा और जिन लोगों को माबूद समझते हो उनको (वक़्त पडे़) पुकार के तो देखो कि वह न तो तुम से तुम्हारी तकलीफ ही दफा कर सकते हैं और न उसको बदल सकते हैं (56)
ये लोग जिनको मुशरेकीन (अपना ख़ुदा समझकर) इबादत करते हैं वह खुद अपने परवरदिगार की क़ुरबत के ज़रिए ढूँढते फिरते हैं कि (देखो) इनमें से कौन ज़्यादा कुरबत रखता है और उसकी रहमत की उम्मीद रखते और उसके अज़ाब से डरते हैं इसमें शक नहीं कि तेरे परवरदिगार का अज़ाब डरने की चीज़ है (57)
और कोई बस्ती नहीं है मगर रोज़ क़यामत से पहले हम उसे तबाह व बरबाद कर छोड़ेगें या (नाफरमानी) की सज़ा में उस पर सख़्त से सख़्त अज़ाब करेगें (और) ये बात किताब (लौहे महफूज़) में लिखी जा चुकी है (58)
और हमें मौजिज़ात भेजने से किसी चीज़ ने नहीं रोका मगर इसके सिवा कि अगलों ने उन्हें झुठला दिया और हमने क़ौमे समूद को (मौजिज़े से) ऊँटनी अता की जो (हमारी कुदरत की) दिखाने वाली थी तो उन लोगों ने उस पर ज़ुल्म किया यहाँ तक कि मार डाला और हम तो मौजिज़े सिर्फ डराने की ग़रज़ से
भेजा करते हैं (59)
और (ऐ रसूल) वह वक़्त याद करो जब तुमसे हमने कह दिया था कि तुम्हारे परवरदिगार ने लोगों को (हर तरफ से) रोक रखा है कि (तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते और हमने जो ख़्वाब तुमाको दिखलाया था तो बस उसे लोगों (के इमान) की आज़माइश का ज़रिया ठहराया था और (इसी तरह) वह दरख़्त जिस पर क़ुरान में लानत की गई है और हम बावजूद कि उन लोगों को (तरह तरह) से डराते हैं मगर हमारा डराना उनकी सख़्त सरकशी को बढ़ाता ही गया (60)
और जब हम ने फरिश्तौं से कहा कि आदम को सजदा करो तो सबने सजदा किया मगर इबलीस वह (गुरुर से) कहने लगा कि क्या मै ऐसे शख़्स को सजदा करुँ जिसे तूने मिट्टी से पैदा किया है (61)
और (शेख़ी से) बोला भला देखो तो सही यही वह शख़्स है जिसको तूने मुझ पर फज़ीलत दी है अगर तू मुझ को क़यामत तक की मोहलत दे तो मैं (दावे से कहता हूँ कि) कम लोगों के सिवा इसकी नस्ल की जड़ काटता रहूँगा (62)
ख़ुदा ने फरमाया चल (दूर हो) उनमें से जो शख़्स तेरी पैरवी करेगा तो (याद रहे कि) तुम सबकी सज़ा जहन्नुम है और वह भी पूरी पूरी सज़ा है (63)
और इसमें से जिस पर अपनी (चिकनी चुपड़ी) बात से क़ाबू पा सके वहां और अपने (चेलों के लश्कर) सवार और पैदल (सब) से चढ़ाई कर और माल और औलाद में उनके साथ साझा करे और उनसे (खूब झूटे) वायदे कर और शैतान तो उनसे जो वायदे करता है धोखे (की टट्ट्) के सिवा कुछ नहीं होता (64)
बेशक जो मेरे (ख़ास) बन्दें हैं उन पर तेरा ज़ोर नहीं चल (सकता) और कारसाज़ी में तेरा परवरदिगार काफी है (65)
लोगों) तुम्हारा परवरदिगार वह (क़ादिरे मुत्तलिक़) है जो तुम्हारे लिए समन्दर में जहाज़ों को चलाता है ताकि तुम उसके फज़ल व करम (रोज़ी) की तलाश करो इसमें शक नहीं कि वह तुम पर बड़ा मेहरबान है (66)
और जब समन्दर में कभी तुम को कोई तकलीफ पहुँचे तो जिनकी तुम इबादत किया करते थे ग़ायब हो गए मगर बस वही (एक ख़ुदा याद रहता है) उस पर भी जब ख़ुदा ने तुम को छुटकारा देकर खुशकी तक पहुँचा दिया तो फिर तुम इससे मुँह मोड़ बैठें और इन्सान बड़ा ही नाशुक्रा है (67)
तो क्या तुम उसको इस का भी इत्मिनान हो गया कि वह तुम्हें खुश्की तरफ (ले जाकर) (क़ारुन की तरह) ज़मीन में धंसा दे या तुम पर (क़ौम) लूत की तरह पत्थरों का मेंह बरसा दे फिर (उस वक़्त) तुम किसी को अपना कारसाज़ न पाओगे (68)
या तुमको इसका भी इत्मेनान हो गया कि फिर तुमको दोबारा इसी समन्दर में ले जाएगा उसके बाद हवा का एक ऐसा झोका जो (जहाज़ के) परख़चे उड़ा दे तुम पर भेजे फिर तुम्हें तुम्हारे कुफ्र की सज़ा में डुबा मारे फिर तुम किसी को (ऐसा हिमायती) न पाओगे जो हमारा पीछा करे और (तुम्हें छोड़ा जाए) (69)
और हमने यक़ीनन आदम की औलाद को इज़्ज़त दी और खुश्की और तरी में उनको (जानवरों कश्तियों के ज़रिए) लिए लिए फिरे और उन्हें अच्छी अच्छी चीज़ें खाने को दी और अपने बहुतेरे मख़लूक़ात पर उनको अच्छी ख़ासी फज़ीलत दी (70)
उस दिन (को याद करो) जब हम तमाम लोगों को उन पेशवाओं के साथ बुलाएँगें तो जिसका नामए अमल उनके दाहिने हाथ में दिया जाएगा तो वह लोग (खुश खुश) अपना नामए अमल पढ़ने लगेगें और उन पर रेशा बराबर ज़ुल्म नहीं किया जाएगा (71)
और जो शख़्स इस (दुनिया) में (जान बूझकर) अंधा बना रहा तो वह आखि़रत में भी अंधा ही रहेगा और (नजात) के रास्ते से बहुत दूर भटका सा हुआ (72)
और (ऐ रसूल) हमने तो (क़ुरान) तुम्हारे पास ‘वही’ के ज़रिए भेजा अगर चे लोग तो तुम्हें इससे बहकाने ही लगे थे ताकि तुम क़ुरान के अलावा फिर (दूसरी बातों का) इफ़तेरा बाँधों और (जब तुम ये कर गुज़रते उस वक़्त ये लोग तुम को अपना सच्चा दोस्त बना लेते (73)
और अगर हम तुमको साबित क़दम न रखते तो ज़रुर तुम भी ज़रा (ज़हूर) झुकने ही लगते (74)
और (अगर तुम ऐसा करते तो) उस वक़्त हम तुमको जि़न्दगी में भी और मरने पर भी दोहरे (अज़ाब) का मज़ा चखा देते और फिर तुम को हमारे मुक़ाबले में कोई मददगार भी न मिलता (75)
और ये लोग तो तुम्हें (सर ज़मीन मक्के) से दिल बर्दाश्त करने ही लगे थे ताकि तुम को वहाँ से (शाम की तरफ) निकाल बाहर करें और ऐसा होता तो तुम्हारे पीछे में ये लोग चन्द रोज़ के सिवा ठहरने भी न पाते (76)
तुमसे पहले जितने रसूल हमने भेजे हैं उनका बराबर यही दस्तूर रहा है और जो दस्तूर हमारे (ठहराए हुए) हैं उनमें तुम तग़्य्युर तबद्दुल {रद्दो बदल} न पाओगे (77)
(ऐ रसूल) सूरज के ढलने से रात के अँधेरे तक नमाज़े ज़ोहर, अ०, मग़रिब, इशा पढ़ा करो और नमाज़ सुबह (भी) क्योंकि सुबह की नमाज़ पर (दिन और रात दोनों के फरिश्तौं की) गवाही होती है (78)
और रात के ख़ास हिस्से में नमाजे़ तहज्जुद पढ़ा करो ये सुन्नत तुम्हारी खास फज़ीलत हैं क़रीब है कि क़यामत के दिन ख़ुदा तुमको मक़ामे महमूद तक पहुँचा दे (79)
और ये दुआ माँगा करो कि ऐ मेरे परवरदिगार मुझे (जहाँ) पहुँचा अच्छी तरह पहुँचा और मुझे (जहाँ से निकाल) तो अच्छी तरह निकाल और मुझे ख़ास अपनी बारगाह से एक हुकूमत अता फरमा जिस से (हर कि़स्म की) मदद पहुँचे (80)
और (ऐ रसूल) कह दो कि (दीन) हक़ आ गया और बातिल नेस्तनाबूद हुआ इसमें शक नहीं कि बातिल मिटने वाला ही था (81)
और हम तो क़ुरान में वही चीज़ नाजि़ल करते हैं जो मोमिनों के लिए (सरासर) शिफा और रहमत है (मगर) नाफरमानों को तो घाटे के सिवा कुछ बढ़ाता ही नहीं (82)
और जब हमने आदमी को नेअमत अता फरमाई तो (उल्टे) उसने (हमसे) मुँह फेरा और पहलू बचाने लगा और जब उसे कोई तकलीफ छू भी गई तो मायूस हो बैठा (83)
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि हर (एक अपने तरीक़े पर कारगुज़ारी करता है फिर तुम में से जो शख़्स बिल्कुल ठीक सीधी राह पर है तुम्हारा परवरदिगार (उससे) खूब वाकि़फ है (84)
और (ऐ रसूल) तुमसे लोग रुह के बारे में सवाल करते हैं तुम (उनके जवाब में) कह दो कि रूह (भी) मेरे परदिगार के हुक्म से (पैदा हुई है) और तुमको बहुत थोड़ा सा इल्म दिया गया है (85)
(इसकी हक़ीकत नहीं समझ सकते) और (ऐ रसूल) अगर हम चाहे तो जो (क़ुरान) हमने तुम्हारे पास ‘वही’ के ज़रिए भेजा है (दुनिया से) उठा ले जाएँ फिर तुम अपने वास्ते हमारे मुक़ाबले में कोई मददगार न पाओगे (86)
मगर ये सिर्फ तुम्हारे परवरदिगार की रहमत है (कि उसने ऐसा किया) इसमें शक नहीं कि उसका तुम पर बड़ा फज़ल व करम है (87)
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि (अगर सारे दुनिया जहाँन के) आदमी और जिन इस बात पर इकट्ठे हो कि उस क़ुरान का मिसल ले आएँ तो (ना मुमकिन) उसके बराबर नहीं ला सकते अगरचे (उसको कोशिश में) एक का एक मददगार भी बने (88)
और हमने तो लोगों (के समझाने) के वास्ते इस क़ुरान में हर कि़स्म की मसलें अदल बदल के बयान कर दीं उस पर भी अक्सर लोग बग़ैर नाशुक्री किए नहीं रहते (89)
(ऐ रसूल कुफ्फार मक्के ने) तुमसे कहा कि जब तक तुम हमारे वास्ते ज़मीन से चश्मा (न) बहा निकालोगे हम तो तुम पर हरगिज़ इमान न लाएँगें (90)
या (ये नहीं तो) खजूरों और अँगूरों का तुम्हारा कोई बाग़ हो उसमें तुम बीच बीच में नहरे जारी करके दिखा दो (91)
या जैसा तुम गुमान रखते थे हम पर आसमान ही को टुकड़े (टुकड़े) करके गिराओ या ख़ुदा और फरिष्तों को (अपने क़ौल की तस्दीक़) में हमारे सामने (गवाही में ला खड़ा कर दिया (92)
और जब तक तुम हम पर ख़ुदा के यहाँ से एक किताब न नाजि़ल करोगे कि हम उसे खुद पढ़ भी लें उस वक़्त तक हम तुम्हारे (आसमान पर चढ़ने के भी) क़ायल न होगें (ऐ रसूल) तुम कह दो कि सुबहान अल्लाह मै एक आदमी (ख़ुदा के) रसूल के सिवा आखि़र और क्या हूँ (93)
(जो ये बेहूदा बातें करते हो) और जब लोगों के पास हिदायत आ चुकी तो उनको इमान लाने से इसके सिवा किसी चीज़ ने न रोका कि वह कहने लगे कि क्या ख़ुदा ने आदमी को रसूल बनाकर भेजा है (94)
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि अगर ज़मीन पर फ़रिश्ते (बसे हुये) होते कि इत्मेनान से चलते फिरते तो हम उन लोगों के पास फ़रिश्ते ही को रसूल बनाकर नाजि़ल करते (95)
(ऐ रसूल) तुम कह दो कि हमारे तुम्हारे दरम्यिान गवाही के वास्ते बस ख़ुदा काफी है इसमें शक नहीं कि वह अपने बन्दों के हाल से खूब वाकि़फ और देखता रहता है (96)
और ख़ुदा जिसकी हिदायत करे वही हिदायत याफता है और जिसको गुमराही में छोड़ दे तो (याद रखो कि) फिर उसके सिवा किसी को उसका सरपरस्त न पाआगे और क़यामत के दिन हम उन लोगों का मुँह के बल औंधे और गूँगें और बहरे क़ब्रों से उठाएँगें उनका ठिकाना जहन्नुम है कि जब कभी बुझने को होगी तो हम उन लोगों पर (उसे) और भड़का देंगे (97)
ये सज़ा उनकी इस वज़ह से है कि उन लोगों ने हमारी आयतों से इन्कार किया और कहने लगे कि जब हम (मरने के बाद सड़ गल) कर हड्डियाँ और रेज़ा रेज़ा हो जाएँगीं तो क्या फिर हम नये सिरे से पैदा करके उठाए जाएँगें (98)
क्या उन लोगों ने इस पर भी नहीं ग़ौर किया कि वह ख़ुदा जिसने सारे आसमान और ज़मीन बनाए इस पर भी (ज़रुर) क़ादिर है कि उनके ऐसे आदमी दोबारा पैदा करे और उसने उन (की मौत) की एक मियाद मुक़र्रर कर दी है जिसमें ज़रा भी शक नहीं उस पर भी ये ज़ालिम इन्कार किए बग़ैर न रहे (99)
(ऐ रसूल) इनसे कहो कि अगर मेरे परवरदिगार के रहमत के ख़ज़ाने भी तुम्हारे एख़तियार में होते तो भी तुम खर्च हो जाने के डर से (उनको) बन्द रखते और आदमी बड़ा ही तंग दिल है (100)
और हमने यक़ीनन मूसा को खुले हुए नौ मौजिज़े अता किए तो (ऐ रसूल) बनी इसराईल से (यही) पूछ देखो कि जब मूसा उनके पास आए तो फिरआऊन ने उनसे कहा कि ऐ मूसा मै तो समझता हूँ कि किसी ने तुम पर जादू करके दीवाना बना दिया है (101)
मूसा ने कहा तुम ये ज़रुर जानते हो कि ये मौजिज़े सारे आसमान व ज़मीन के परवरदिगार ने नाजि़ल किए (और वह भी लोगों की) सूझ बूझ की बातें हैं और ऐ फिरआऊन मै तो ख़्याल करता हूँ कि तुम पर शामत आई है (102)
फिर फिरआऊन ने ये ठान लिया कि बनी इसराईल को (सर ज़मीने) मिस्र से निकाल बाहर करे तो हमने फिरआऊन और जो लोग उसके साथ थे सब को डुबो मारा (103)
और उसके बाद हमने बनी इसराईल से कहा कि (अब तुम ही) इस मुल्क में (खूब आराम से) रहो सहो फिर जब आखि़रत का वायदा आ पहुँचेगा तो हम तुम सबको समेट कर ले आएँगें (104)
और (ऐ रसूल) हमने इस क़ुरान को बिल्कुल ठीक नाजि़ल किया और बिल्कुल ठीक नाजि़ल हुआ और तुमको तो हमने (जन्नत की) खुशखबरी देने वाला और (अज़ाब से) डराने वाला (रसूल) बनाकर भेजा है (105)
और क़ुरान को हमने थोड़ा थोड़ा करके इसलिए नाजि़ल किया कि तुम लोगों के सामने (ज़रुरत पड़ने पर) मोहलत दे देकर उसको पढ़ दिया करो (106)
और (इसी वजह से) हमने उसको रफ्ता रफ्ता नाजि़ल किया तुम कह दो कि ख़्वाह तुम इस पर ईमान लाओ या न लाओ इसमें शक नहीं कि जिन लोगों को उसके क़ब्ल ही (आसमानी किताबों का इल्म अता किया गया है उनके सामने जब ये पढ़ा जाता है तो ठुडडियों से (मुँह के बल) सजदे में गिर पड़तें हैं (107)
और कहते हैं कि हमारा परवरदिगार (हर ऐब से) पाक व पाकीज़ा है बेशक हमारे परवरदिगार का वायदा पूरा होना ज़रुरी था (108)
और ये लोग (सजदे के लिए) मुँह के बल गिर पड़तें हैं और रोते चले जाते हैं और ये क़ुरान उन की ख़ाकसारी के बढ़ाता जाता है (109) (सजदा)
(ऐ रसूल) तुम (उनसे) कह दो कि (तुम को एख़तियार है) ख़्वाह उसे अल्लाह (कहकर) पुकारो या रहमान कह कर पुकारो (ग़रज़) जिस नाम को भी पुकारो उसके तो सब नाम अच्छे (से अच्छे) हैं और (ऐ रसूल) न तो अपनी नमाज़ बहुत चिल्ला कर पढ़ो न और न बिल्कुल चुपके से बल्कि उसके दरम्यिान एक औसत तरीका एख़्तेयार कर लो (110)
और कहो कि हर तरह की तारीफ उसी ख़ुदा को (सज़ावार) है जो न तो कोई औलाद रखता है और न (सारे जहाँन की) सल्तनत में उसका कोई साझेदार है और न उसे किसी तरह की कमज़ोरी है न कोई उसका सरपरस्त हो और उसकी बड़ाई अच्छी तरह करते रहा करो (111)
सूरए बनी इसराईल ख़त्म