सूरए जुहा मक्का में नाजि़ल हुआ और इसकी ग्यारह (11) आयतें हैं
ख़ुदा के नाम से (शुरू करता हूँ) जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है
(ऐ रसूल) पहर दिन चढ़े की क़सम (1)
और रात की जब (चीज़ों को) छुपा ले (2)
कि तुम्हारा परवरदिगार न तुमको छोड़ बैठा और (न तुमसे) नाराज़ हुआ (3)
और तुम्हारे वास्ते आख़ेरत दुनिया से यक़ीनी कहीं बेहतर है (4)
और तुम्हारा परवरदिगार अनक़रीब इस क़दर अता करेगा कि तुम ख़ुश हो जाओ (5)
क्या उसने तुम्हें यतीम पाकर (अबू तालिब की) पनाह न दी (ज़रूर दी) (6)
और तुमको एहकाम से नावाकिफ़ देखा तो मंजि़ले मक़सूद तक पहुँचा दिया (7)
और तुमको तंगदस्त देखकर ग़नी कर दिया (8)
तो तुम भी यतीम पर सितम न करना (9)
माँगने वाले को झिड़की न देना (10)
और अपने परवरदिगार की नेअमतों का जि़क्र करते रहना (11)
सूरए अज़ जुहा ख़त्म